डॉ0 ओम प्रकाश सिंह ने कहा कि भारतेन्दु जी का जन्म उस समय हुआ जब दयानन्द सरस्वती के विचारों व आन्दोलनों का युग चल रहा था। महापुरुषों का जीवन संघर्षमय रहा है। भारतेन्दु जी की कुल रचनाएँ 72 हैं। भारतेन्दु जी को युगबोध था। भारत सरकार की नई शिक्षानीति के समय में आज हम भारतेन्दु की प्रासंगिकता पर चर्चा कर रहें है। उनके साहित्य में पत्रकारिता से विषय-वस्तु का समावेश हुआ। उन्होंने ‘कवि वचन सुधा‘ नामक समाचार पत्र का प्रकाशित किया। उन्होंने अपने समाचार पत्रों में नवोदित कवियों, साहित्यकारों को स्थान दिया। राजा सितारे हिन्द भारतेन्दु जी के गुरु थे। भारतेन्दु जी ने कभी अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार नहीं की जिससे उनको काफी आर्थिक संकटों से भी गुजरना पड़ा था। भारतेन्दु जी भविष्य के स्वप्न द्रष्टा थे। स्वदेशी प्रतिज्ञा के अनुकरण व नियमों का संचालन किया। उन्होंने विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया। उन्होंने अग्रेजों के बारे में लिखा- ‘अंग्रेज जब इंग्लैण्ड से आते है तो वे दरिद्र होते हैं जब भारत से इंगलैण्ड जाते हैं तब कुबेर बनकर जाते हैं। उन्होंने भारतीयों में साहस भरा व ललकारा भी। वे देश भक्ति विचारधारा से ओत-प्रोत थे। आज भारत में भारतेन्दु व उनके विचार सभी प्रासंगिक है।
अध्यक्षीय सम्बोधन में डॉ0 सदानन्दप्रसाद गुप्त, कार्यकारी अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने कहा कि भारतेन्दु ब्रज भाषा के कवि हैं। भारतेन्दु उन महान विभूतियों में से एक हैं जो किसी विशेष कार्य को सम्पन्न करने के लिए धरती पर आते है। उनके समय में देश में संक्रमण काल था। वे नव जागरण के पुरोधा कहे जाते हैं। ‘कवि वचनसुधा‘ ध्येयता भारत अपना स्वप्न पूरा करे। वे दूरदर्शी व भविष्य के स्वप्न द्रष्टा थे। उन्होंने भारत में नव जागरण का मंत्र फूँका। वे दृढ़प्रतिज्ञ, स्वावलम्बी रचनाकार थे। उनके साहित्य में श्रंृगार तत्व उदात्त श्रंृगार है। उनका कहना था परमेश्वर को पाने का मार्ग प्रेम है। उनकी रचनाएँ राष्ट्रीय चेतना व राष्ट्रप्रेम से भरी हैं। उनका मानना था कि नाटकों में लौकिक विषयों का समावेश होना चाहिए। जिस देश में तुम रहते हो उससे तुम प्रेम करो। भारतेन्दु वैष्णव थे। उनकी मान्यता थी कि द्वैष व कलह देश की एक बड़ी समस्या है। वे औपनिवेशिक व्यवस्था से संघर्ष करते नजर आते हैं। भाषा केवल विचारों के प्रेषण का माध्यम नहीं भाषा संस्कृति की संवाहक होती है इसी दृष्टि से उन्होंने निजभाषा पर बल दिया। भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है। स्वदेशी चेतना के तत्व उनके निबन्धों में मिलते हैं। वे आर्थिक स्वावलम्बन के पक्षधर थे। वे भारतीयों को कभी पुचकार कर कभी फटकार अपनी कहते है। भारतेन्दु के निबंधों में सामाजिक उद्देश्य निहित है। व्यंग्य की परम्परा हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से प्रारम्भ होता है।
डॉ0 अमिता दुबे, प्रधान सम्पादक, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान ने कार्यक्रम का संचालन किया। इस संगोष्ठी में उपस्थित समस्त साहित्यकारों, विदुत्तजनों एवं मीडिया कर्मियों का अभार व्यक्त किया।