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Monday, July 25, 2022

भारत के कई राज्यों में अल्पसंख्यक हैं हिंदू, फिर वे क्‍यों नहीं सुविधाओं और सहूलियतों के हकदार?


नई दिल्‍ली (
मानवी मीडिया आनलाइन डेस्‍क। संविधान की नजर में सभी बराबर हैं। किसी के अल्पसंख्यक होने पर न तो उसे सहूलियत दिए जाने का इसमें कोई विधान है और न ही बहुसंख्यक होने पर उसके अधिकारों में कटौती की बात कही गई है। अपने राजनीतिक हितों और सियासी जरूरतों को पूरा करने के लिए कुछ राजनीतिक दलों ने अल्पसंख्यक शब्द को जिलाए रखा है।

23 अक्टूबर 1993 को एक अधिसूचना जारी करके राष्ट्रीय स्तर पर आबादी के आधार पर पांच समुदायों मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को अल्पसंख्यक घोषित किया गया है। तब से अब तक देश का भूगोल बदल चुका है। कई राज्यों में परिभाषित अल्पसंख्यक अब बहुसंख्यक हो चुके हैं और तब के बहुसंख्यक अल्पसंख्यक में तब्दील हो चुके हैं।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में सुप्रीम कोर्ट से राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून, 1992 की धारा 2 (सी) को रद करने की मांग की गई है। याचिका में 23 अक्टूबर, 1993 की अधिसूचना को भी चुनौती दी गई है। याचिका में कहा गया है कि देश के कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं। उन्हें वहां अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त नहीं हैं। इसलिए उन्हें अल्पसंख्यकों को मिलने वाला लाभ वहां नहीं मिल पाता।

न्‍यायालयों की व्‍याख्‍या

  • केरल शिक्षा बिल, 1958 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अल्संख्यक का निर्धारण किस आधार पर हो, यह बड़ा सवाल है। देश में ऐसा संभव है कि कोई समुदाय किसी राज्य में बहुसंख्यक है, लेकिन पूरे देश के अनुपात में वह अल्पसंख्यक हो जाए। कोई समुदाय किसी शहर में बहुसंख्यक हो, लेकिन राज्य में अल्पसंख्यक हो जाए।
  • 1971 के डीएवी कालेज मामले में कोर्ट ने फैसला दिया कि पंजाब में हिंदुओं को अल्पसंख्यक माना जाए। लेकिन पंजाब और हरियाणा ने यह नहीं माना कि वहां सिख बहुसंख्यक हैं।
  • गुरु नानक यूनिवर्सिटी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक समुदाय को पूरे देश की आबादी के अनुपात में अल्पसंख्यक नहीं माना जाएगा। किसी समुदाय को उस क्षेत्र के कानून के हिसाब से अल्पसंख्यक तय किया जाएगा, जिस पर उसका प्रभाव पड़ेगा। अगर राज्य के कानून पर असर पड़ता है, तो राज्य की आबादी के अनुपात में समुदाय का अल्पसंख्यक होना या न होना तय किया जाएगा।
  • 2002 के टीएमए पई फाउंडेशन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य की आबादी के अनुपात में ही किसी समुदाय को अल्पसंख्यक मानने या ना मानने का फैसला हो। नगालैंड, मिजोरम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, जम्मू-कश्मीर और पंजाब में हिंदुओं की संख्या के हिसाब से उन्हें अल्पसंख्यक माना जाना चाहिए।
  • अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कालेज बनाम गुजरात सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भले ही किसी शिक्षण संस्थान को किसी खास समुदाय ने स्थापित किया है और संचालित कर रहा है, लेकिन वह संस्थान किसी दूसरे समुदायों के छात्रों को दाखिला देने से मना नहीं कर सकता।
  • जैन समुदाय को पहले ही उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अल्पसंख्यक का दर्जा मिला है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक समिति ने भी समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने का प्रस्ताव रखा था। जब इस समुदाय ने केंद्र सरकार से भी यही दर्जा मांगा तो 2005 के बाल पाटिल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अल्पसंख्यक समुदाय का सिद्धांत बनाते समय संविधान निर्माताओं ने इस बारे में ज्यादा सोच विचार नहीं किया। हमारा समाज जो कि समानता को मौलिक अधिकार मानता है, उसमें से अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक और तथाकथित अग्रणी और पिछड़ी जातियों को खत्म कर दिया जाना चाहिए।
  • किसी समुदाय की अधिकारहीनता या समाज से उन्हें अलग-थलग किए जाना, यह अल्पसंख्यक स्टेटस तय करने के दो महत्वपूर्ण बिंदु हैं। इसी के चलते सच्चर कमेटी ने मुस्लिमों के गैर-प्रभावी अस्तित्व की बात रखी। इसके जवाब में इलाहाबाद कोर्ट ने 2006 में फैसला दिया कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता को इस आशय के ठोस उदाहरण पेश करने को कहा है कि अमुक स्थान पर हिंदू अल्पसंख्यक हैं, लेकिन मांगने पर भी उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं मिला है। यह तो शाश्वत सत्य है कि कई राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हो चुके हैं। ऐसे में वे अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली समस्त सुविधाओं और सहूलियतों के हकदार क्यों नहीं हैं? ऐसे तमाम सवालों की पड़ताल आज सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

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