भारतीय भाषा उत्सव विषय ‘नाटकों मेें लोक भाषा का प्रभाव‘ विषय पर संगोष्ठी - मानवी मीडिया

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Monday, November 6, 2023

भारतीय भाषा उत्सव विषय ‘नाटकों मेें लोक भाषा का प्रभाव‘ विषय पर संगोष्ठी

 


लखनऊ: (मानवी मीडियाउत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा भारतीय भाषा उत्सव के अन्तर्गत सोमवार 06 नवम्बर, 2023 को पूर्वाह्न 10.30 बजे से संगोष्ठी का आयोजन हिन्दी भवन के निराला सभागार लखनऊ में किया गया।

सम्माननीय अतिथि डॉ0 सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, डॉ0 अलका पाण्डेय का स्मृति चिन्ह भेंट कर स्वागत डॉ0 अमिता दुबे, प्रधान सम्पादक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा किया गया।
दीप प्रज्वलन, माँ सरस्वती की प्रतिमा पर माल्यार्पण के उपरान्त कार्यक्रम में वाणी वंदना श्रीमती कामनी त्रिपाठी द्वारा प्रस्तुत की गयी।
डॉ0 अलका पाण्डेय ने कहा- नाटक के पात्र जो बात करते है वह एक कलाकार के नहीं बल्कि उसके होते है जिसका वह पात्र किरदार निभा रहा है। रंगमंच एक विशिष्ट है। पर्दो पर जब कोई चित्र देख रहे होते है तो वह बहुत बड़े दिखाई देता है, जबकि नाटक के किरदार वास्तविक दिखाई देते है। इसलिए नाटक रंगमंच के अलग हैं। रंगमंच जीवंत विधा है। नाटक की भाषा कोई व्याकरण की भाषा नहीं है। इसमें पात्र का प्रत्येक अंग बोलता है। नाटक में संगीत और नृत्य बोलता हुआ प्रतीत होता है। मौन की भी अपनी भाषा होती है। पात्र अपने संवादों के द्वारा जीवंत रहता है। पात्र संवादो के अरोह और अवरोह पर विशेष ध्यान देते है। नाटक लिखना बहुत कठिन माना गया हैै। क्योंकि उसमें जो कुछ घटित करना है उसे संवादो के माध्यम से प्रस्तुत करना है। नाटक एक पाठ्य विधा नहीं है। जब तक नाटक रंगमंच पर नहीं होते तब तक वे पूर्ण नहीं होते।
डॉ0 सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ ने कहा - नाटक दृश्य काव्य है। यह आंखो और कानो के लिए है। इन दोनों इन्द्रियों से इनका सम्बन्ध है। लिखा हुआ नाटक साहित्य का हिस्सा है, परन्तु जब तक उसका मंचन नहीं होता वह अपूर्ण रहता है। लोक भाषा का मतलब लोगो की भाषा, जिस भाषा में लोग अपने आम जनजीवन को अभिव्यक्त करते है। प्राकृत लोक भाषा थी। संस्कृत उच्चवर्ग की भाषा थी। निम्न वर्ग और स्त्रियों को संस्कृत उस समय बोलने की मनाही थी। उनके संवाद प्राकृत भाषा में मिलते है। आप किसी पुस्तक को धीरे-धीरे पढ़ सकते है पर नाटक में ऐसा नही हैं उसमें जो संवाद एक बार बोल दिया जाता है उसे पुनः नहीं बोला जाता है। रामलीला में रामचरित मानस की जगह राधेश्याम रामायण का प्रयोग है। आधुनिक नाटकों में यथार्थ की भाषा मिलती हैं जबकि पुराने नाटकों से लोकभाषा मिलती है। लोकभाषा निरंतर अपने को बदलती रहती है। संस्कृत और भाषा एक बहती नदी की तरह है। रंगमंच, दृश्य, वाचिक अभिनय की अलग-अलग भाषा होती है।
शोधार्थियों/विद्यार्थियों में सुश्री सुकीर्ति तिवारी, तनु मिश्रा, आसिया बानो द्वारा ‘लक्ष्मीनारायण मिश्र का नाटक सिंदूर की होली‘ की प्रस्तुति की गयी।
डॉ0 अमिता दुबे, प्रधान सम्पादक, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान ने कार्यक्रम का संचालन किया। इस संगोष्ठी में उपस्थित समस्त साहित्यकारों, विद्वत्तजनों एवं मीडिया कर्मियों का आभार व्यक्त किया।

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