पढ़ोगे लिखोगे तो होंगे नवाब, खेलोगे कूदोगे तो होंगे खराब यह कहावत हम बचपन के उस दौर से सुन रहे हैं जब अच्छे - बुरे, सही - गलत का असल में फर्क भी नहीं पता था। रिश्तेदारों, सगे - सम्बन्धियों की नजऱों में पढाई - लिखाई को उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं की तरह व खेलने कूदने को अभिशाप की तरह समझा जाता था। ये वास्तविकता का अहम पहलू है जिसमें 90 प्रतिशत से अधिक लोगों को इस वाकये से हो कर गुजरना पड़ा होगा। वक्त की तेजी से बदलती करवट और आधुनिकीकरण की मायावी दुनिया में खेलने कूदने की जगह मोबाइल फ़ोन ने ले ली।
इन सब के बावजूद जब जापान के टोक्यो में इस साल ओलंपिक्स का आयोजन किया गया तो हर भारतीय को उम्मीद थी कि इस बार भारतीय युवा खिलाडी ओलंपिक में पहले से अधिक बेहतर प्रदर्शन करेंगे और आंकड़े बताते हैं कि वाकई में भारतीय खिलाडियों ने पहले से बेहतरीन प्रदर्शन कर भारतवंशियों को गौरवान्वित करने का यादगार क्षण दिया। इस ओलंपिक में भारतीय खिलाडिय़ों के बेहतर प्रदर्शन के बाद भी मन में एक कसक रह गई कि 130 करोड़ के देश में जहां 30 प्रतिशत से अधिक युवाओं की जनसंख्या है, वहां हम सिर्फ सात मेडल ही जीत कर ला पाएं। जरूरत है कि राज्य सरकारें युवाओं और उनके अभिभावकों के मन में खेलोगे कूदोगे होंगे कामयाब जैसे वाक्य को चरितार्थ करने की ताकि देश में आगे की युवा पीढिय़ाँ पढाई के साथ खेल पर भी अधिक ध्यान दे सकें। जो जीता उसका खूब अभिनन्दन हुआ लेकिन जो हारा वो भी कम बेहतरीन नहीं था इसीलिए देश की केंद्र सरकार से लगाए सभी राज्य सरकारों को विजेता खिलाडिय़ों के साथ ओलंपिक्स में भाग लेने वाले सभी खिलाडिय़ों का समान रूप से प्रोत्साहन करना चाहिए ताकि नए खिलाडी भी देश के लिए अपना सर्वोच्च प्रदर्शन करने की कोशिश में जी जान लगा दें और जो खेल के आए हैं वो और भी बेहतरीन प्रदर्शन करें।