महर्षि दयानन्द सरस्वती जी: महान सामाजिक विचारक                संपादकीय   - मानवी मीडिया

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Friday, October 30, 2020

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी: महान सामाजिक विचारक                संपादकीय  

हमारे भारतवर्ष में बहुत महापुरुषों ने जन्म लिया और समय-समय पर समाज को भलाई का रास्ता दिखा गए। इनका जन्म किसी ना किसी खास उदेश्य के लिए ही होता है। उनमें से एक है महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी। स्वामी जी का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा (अब मोरबी जिला) में हुआ। उनका असली नाम मूल शंकर था। उनके पिता जी का नाम कर्षणजी लाल और माता जी का नाम यशोदाबाई था। स्वामी जी बचपन से ही शिवभक्त थे। वह भगवान शिव जी की बहुत आराधना करते थे। एक बार जब स्वामी जी शिवरात्रि का व्रत कर रहे थे तब उन्होंने देखा कि भगवान शिव जी की मूर्ति के सामने रखे प्रसाद को चूहा खा गया और मूर्ति पर चढ़ कर भाग रहा था। इसको देखने के बाद स्वामी जी के मन में सवाल आया कि अगर भगवान शिव जी इस चूहे से खुद को नहीं बचा पाए तो संसार को कैसे बचा पाएँगे। इसके बाद स्वामी जी मूर्ति पूजा के विरोधी हो गए। 22 वर्ष की आयु में स्वामी जी ने अपना घर छोड़ दिया और संन्यासी बन गए। वह संन्यासी बनकर धर्म को जानना चाहते थे। स्वामी जी के गुरु थे स्वामी विरजानन्द। स्वामी जी ने छोटी आयु में ही वैदिक ज्ञान प्राप्त कर लिया। वह वैदिक ज्ञान को पुन: जीवित करने के लिए कार्य करने लगे। स्वामी जी ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया। स्वामी जी कर्म करने में विश्वास रखते थे। उन्हें पुनर्जन्म में यकीन था। स्वामी जी का मानना था कि हिन्दू धर्म वेदों के मूल्यों से दूर हो गया है। इसलिए उन्होंने भारतवर्ष के कई बुद्धिजीवी और पंडितों को बहस की चुनौती दी और अपने संस्कृत और वेदों के ज्ञान के बल पर बहस जीतेस्वामी जी ने 1869 से गुरुकुल शुरू किये जिसमें वैदिक मूल्य, संस्कृति, अच्छे संस्कार और सनातन धर्म सिखाये जाते थे ताकि बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाई से मुक्ति मिले। पहला गुरुकुल फरुखाबाद में शुरू हुआ था। स्वामी जी ने 10 अप्रैल 1875 को आर्य समाज की स्थापना की। इसका मकसद वेदों के मूल्यों को जागृत करना था। । आर्य समाजी सिर्फ एक परमात्मा पर विश्वास रखते है और मूर्ति पूजा का भारी विरोध करते है। स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने अपने समाज सुधारवादी विचार प्रकट किए। स्वामी जी ने ही सबसे पहले पूर्ण स्वराज का आह्वान किया था। उन्होंने कहा भारत भारतीयों का, फिर इसे लोकमान्य तिलक जी ने भी अपनाया। स्वामी जी योग बहुत करते थे। उनकी हत्या के बहुत प्रयास हुए परन्तु वह बच निकलते। उन्हें कई बार ज़हर दिया गया पर रोज़ाना हठ योग करने की वजह से वह बच जाते थे। एक बार तो जब स्वामी जी गंगा के किनारे तपस्या कर रहे थे तब कुछ लोगों ने उन्हें पानी में फेंक दिया परन्तु प्राणायाम के अभ्यास के कारण वह पानी में रहे जबतक हमलावर वापस ना चले गए। पूरे विश्व में लोग उनके विचारों से प्रभावित थे। स्वामी जी अंधविश्वास के सख्त विरोधी थे। वह महिलाओ को समान अधिकार के पक्ष में थे। 1883 में जोधपुर के राजा जसवंत सिंह 2 ने स्वामी जी को अपने महल आमंत्रित किया। वह स्वामी जी का शिष्य बनने के लिए व्याकुल था। एक दिन स्वामी जी ने राजा को नाचने वाली लड़की के साथ देखा। उन्होंने राजा को उस लड़की और हर तरह के अनैतिक कार्यों से दूर रहने को कहा। उन्होंने राजा को सच्चे आर्य की भांति धर्म का पालन करने के लिए कहा। इससे वह लड़की स्वामी जी की वैरी हो गई। 29 सितंबर 1883 को उस लड़की ने स्वामी जी के रसोइये को रिश्वत देकर रात के दूध में कांच के छोटे छोटे टुकड़े मिलवा दिए। स्वामी जी ने वह दूध पी लिया। उन्हें कई दिनों तक की बदहज़मी के बाद कष्टदायी दर्द होनें लगा। राजा ने डॉ बुलाया। रसोइये ने स्वामी जी के सामने अपना अपराध स्वीकार किया पर स्वामी जी ने उसे माफ़ कर दिया और पैसे देकर उसे राज्य छोडऩे को कहा ताकि वह राजा से बच सके। स्वामी जी की सेहत नाज़ुक होनें पर उन्हें राजा ने इलाज के लिए माउंट आबू भिजवा दिया फिर 26 अक्टूबर 1883 को अजमेर भेजा गया ताकि और अच्छा इलाज मिले परन्तु सेहत में कोई सुधार ना हुआ। अंत: 30 अक्टूबर 1883 को दिवाली वाले दिन सुबह मंत्रो के जाप दौरान स्वामी जी अपनी देह त्याग गए। स्वामी जी वैदिक मूल्यों वाला एक खुशहाल भारत चाहते थे। उन्होंने अपना सारा जीवन समाज को अर्पित किया हुआ था। स्वामी जी से बहुत प्रसिद्ध लोग प्रभावित थे जैसे कि लाला लाजपत राय, वीर सावरकर, मदन लाल ढींगरा, महात्मा हंसराज, अशफाक उल्लाह खान, भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल आदि। हमें उनके विचारों से प्रेरणा लेनी चाहिए और उनके बताए मार्ग को अपनाना चाहिए क्योंकि वह एक महान सामाजिक विचारक थे।  भारत माता की जय -


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