दागी नेताओं पर लगेगी लगाम   संपादकीय - मानवी मीडिया

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Friday, October 23, 2020

 दागी नेताओं पर लगेगी लगाम   संपादकीय

चुनाव आयोग की नई पहल चुनाव सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। आयोग के नए दिशा-निर्देशों से  दागी नेताओं का चुनाव जीतना मुश्किल हो जाएगा। अब मतदाताओं को यह तय करना आसान हो जाएगा कि उसके प्रत्याशियों पर किसी तरह के अपराधिक आरोप तो नहीं है। इससे उसे साफ सुथरी छवि वाले प्रत्याशियों के चयन में सुविधा होगी।बिहार विधानसभा के लिये  होने वाले चुनाव में दागी प्रत्याशियों के चुनाव जीतने पर लगाम लगेगी। चुनाव आयोग नें पिछले विधानसभा के चुनावों में राजनीतिक दलों से दागी छवि वाले नेताओं को टिकट नहीं देने की अपील की थी। पर इस बार दो कदम और आगे बढ़ कर उसने ऐसे दागी नेताओं को चुनाव लडऩे से पहले अपने उनपर लगे आरोपों का ब्यौरा समाचार पत्रों में तीन बार प्रकाशित करने का निर्देश दिया। उसका प्रयास है कि जनता अधिक से अधिक बेदाग छवि वाले प्रत्याशियों का चयन करे और उन्हें सदन तक पहुंचा सके। अब यह जनता का कर्तव्य हो जाता है कि वह ऐसे नेताओं के पक्ष में मतदान न करें। यही मौका है जब आप अपने लोकतंत्र को मजबूत बना सकते हैं। बिहार चुनाव के लिए महासमर का बिगुल बज गया है।  चुनाव आयोग नें विधानसभा चुनाव  की तारीखों  का ऐलान कर दिया है। इस बार तीन चरणों में विधानसभा चुनाव  होंगे। पहले चरण के चुनाव के लिए 28 अक्टूबर को मतदान, दूसरे चरण का मतदान 3 नवंबर को और तीसरे चरण का मतदान 7 नवंबर को होगा। 10 नवंबर को वोटों की गिनती होगी।   चुनाव आयोग की नई गाइड लाइन बिहार विधानसभा के चुनाव में लागू होगी।नई गाइड लाइन के अनुसार अब प्रत्याशियों को अपनी करतूतों को जनता के समक्ष सार्वजनिक करना होगा। चुनाव आयोग की गाइडलाइन में प्रावधान कर दिया गया है कि दागदार छवि वाले प्रत्याशियों को अब नामांकन पत्र में अपने अपराध संबंधी मुकदमों का ब्योैेेरा देने के साथ ही कम से कम तीन बार यह जानकारी अखबारों में विज्ञापन प्रकाशित कर मतदाताओं को भी देनी होगी। विज्ञापन कब प्रकाशित करना है, इसका निर्धारण. चुनाव आयोग करेगा। अखबार में विज्ञापन प्रकाशित होने के अगले दिन संबंधित प्रत्याशी को उस अखबार की एक प्रति विधानसभा के रिटर्निंग अफसर को देनी होगी जिसमें उसका विज्ञापन होगा। इससे दागदार छवि वाले नेताओं के लिए विधानसभा तक पहुंचने की राह आसान नहीं होगी। राज्य के उप निर्वाचन पदाधिकारी बी.के. सिंह के अनुसार पहले दागदार छवि वाले प्रत्याशियों को फॉर्म 26 के पैरा पांच-छह में आपराधिक मामलों की जानकारी देनी होती थी। अब नई गाइडलाइन में यह व्यवस्था की गई है कि जिन प्रत्याशियों के खिलाफ मामले दर्ज हैं, उन्हें नामांकन के बाद नाम वापसी के चार दिनों के अंदर अपने ऊपर चल रहे या लंबित आपराधिक मामलों का पहला विज्ञापन विधानसभा में प्रसारित अखबार में प्रकाशित कराना होगा। दूसरी बार यही विज्ञापन नाम वापसी के पांचवे से आठवें दिन और तीसरी बार मतदान के ठीक एक दिन पहले समाचार पत्र में प्रकाशित कराना होगा। आयोग का मानना है कि मतदाताओं को अपने प्रत्याशी के आपराधिक मामलों की जानकारी होगी तो वे सोच समझकर मतदान करेंगे। साथ ही इस व्यवस्था के प्रभावी होने से सदन के अंदर साफ-सुथरी छवि वाले विजयी उम्मीदवार पहुंचेंगे। नई व्यवस्था पूरी तरह से पारदर्शी होगी और मतदाताओं को उम्मीदवार के बारे में हर प्रकार की जानकारी मिल सकेगी।  बिहार विधानसभा के इस चुनाव में एक बार फिर जनता को अपने भाग्य का फैसला करने का अधिकार मिला है। यदि आप स्वस्थ समाज चाहते हैं तो कम से कम भ्रष्टाचारियों और अपराधियों को अपना प्रतिनिधि मत चुनिये। जिन्हें आप चुनेंगे वही कानून और सरकार बनायेंगे। देश और प्रदेश का शासन कानून के अनुसार चलता है और प्रदेश का कानून आपके चुने हुए विधायक बनाते हैं। इन्हीं के हाथों में है कि वह कैसा कानून बनायेंगे और कैसे उसका पालन करते हैं। फिलहाल फैसला अब आपके हाथ में है। आप ऐसे विधायकों को चुनेंगे जिनके हाथों में पंाच वर्षो तक बिहार का भविष्य होगा। यदि अच्छे लोग विधानसभा में जायेंगे तो अच्छे कानून बनाकर प्रदेश का विकास करेंगें। यदि गलत लोग पहुॅच गये तो वे न तो अच्छे कानून बनने देंगे और न ही प्रदेश का विकास होने देंगे। गलत विधायक केवल एक जिले का नहीं बल्कि प्रदेश के करोड़ों लोगों का अहित कर सकता है क्योंकि यदि एक अपराधी या भ्रष्टाचारी को खुद कानून का निर्माता बना दिया जाता है तो वह कभी ऐसे कानूनों का समर्थन नहीं करेगा जो खुद उसके ऊपर अंकुश लगाता है। ऐसी स्थिति में जनता के हित के कानून पारित नहीं हो पाते हैं। जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाला लोकपाल विधेयक 50 साल से संसद में अटका हुआ है। पिछले कुछ वर्षो में हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में अपने निजी स्वार्थ साधने वाले स्वयंसेवी, अपराधी तथा भ्रष्ट लोगों की घुसपैठ ज्यादा हो गयी है जिससे लोगों की कीमत पर चोर-बेईमानों और अपराधियों को फलने-फूलने में मदद मिली है। अपराधी और माफिया विधायक, सांसद और मंत्री तक हो चुके हैं। अब समय आ गया है कि मतदाता व्यवस्था में से ऐसे लोगों की सफाई के लिए अपने मताधिकार का प्रयोग करे। मतदाता अपनी पसंद जाहिर करके राजनीतिक दलों में घुसे अपराधियों और भ्रष्टाचारियों को राजनीति से बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं।  लोकतत्र की यह खूबी है कि उसमें लोग अपनी पसंद के उम्मीदवार चुनते हैं और अपेक्षा करते हैं कि उनके उम्मीदवार क्षेत्र के विकास के लिए न्यायसंगत कार्य करेंगे। जिन लोगों की जगह जेल में होनी चाहिए उन्हें कानून बनाने वाली संस्थाओं में नहीं भेजा जाना चाहिए। लेकिन इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि लोकतंत्र का सबसे बड़ा महायज्ञ एक कारोबार बन गया है जिसमें बेहिसाब पैसा झोंका जा रहा है और कोई यह देखने और समझने वाला नहीं है कि यह पैसा कहां से और कैसे आ रहा है और अन्तत: इसकी कीमत कौन चुकायेगा। लोकतंत्र के जिस महायज्ञ में प्रदेश और समाज की ज्वलंत समस्याओं और उनके निदान के उपायों पर बहस होनी चाहिए उसमें बाहुबलियों और भ्रष्टाचारियों की गाथाएं सुनायी जा रही हैं। राजनीति में पतित और भ्रष्ट लोगों के दबदबे के कारण नौकरशाही भी बेलगाम और भ्रष्ट हो गयी है। इस सबका खामियाजा अन्तत: जनता को ही भोगना पड़ता है। किसी भी लोकतांत्रिक अनुष्ठान या यज्ञ में संकल्प के बिना विजय नहीं मिल सकती है। इसलिए जनता यदि यह ठान ले कि वह पढ़े-लिखे और ईमानदार लोगों को ही वोट देगी तो कोई माफिया या बाहुबली चुनाव नहीं जीत सकता है।  क्षेत्रीय मतदाता अपने क्षेत्र के हर दादा और जालसाज को जानता है। जिन लोगों ने विधायिका में आने के बाद धन और बाहुबल का प्रदर्शन किया है, आप उन बाहुबली और कमीशन खोर विधायक को हरवा सकते हैं। बुजुर्गो ने हमेशा कहा है कि अच्छे अवसर का इंतजार करो और जब अवसर आये तो चूको मत। अब फैसला आप ही को करना है कि आप अपना विधायक कैसा चाहते हैं। सिर्फ सरकार को कोसने से बात नहीं बनेगी। आप अपने अधिकार का प्रयोग कीजिए और दूसरों को भी बताइए कि लोकतंत्र में अपने भाग्य का निर्माता मतदाता स्वयं होता है। बहुत से लोग वर्तमान राजनीतिक स्थिति के खिलाफ असंतोष व्यक्त करते हैं। राजनीति से घृणा करते हैं लेकिन चुनाव के दिन जाकर मतदान करना अपने समय की बर्बादी मानते हैं। कुल मिलाकर  लगभग पचास फीसदी लोग चुनावों में अपने मताधिकार का ही प्रयोग नहीं करते हैं। इसका यह नतीजा है कि संगठित गिरोहों के ऐसे लोग बहुत कम वोट पाकर चुनाव जीत जाते हैं, जिन्हें जेल में होना चाहिए। अधिकतर सीटों पर हार जीत का अंतर कुल डाले गये मतों के दो से दस फीसदी के बीच ही होता है। लोकतंत्र में इस स्थिति को मतदान के जरिए ही बदला जा सकता है। राजनीति की इस दुर्दशा और खराब शासन व्यवस्था के लिए वे लोग सबसे अधिक जिम्मेदार हैं जो मतदान करने नहीं जाते हैं। चिंता की बात तो यह है कि मतदान नहीं करने वालों में शहरों में रहने वाले पढ़े लिखे लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। यदि इनमें से बीस फीसदी लोग भी अपने मताधिकार का प्रयोग करने चले जाएं तो देश का पूरा राजनीतिक परिदृश्य बदल जायेगा।       निरंकार सिंह लेखक हिन्दी विश्वकोष के सहायक संपादक रहे हैं।


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