स्वाभाविक जिज्ञासा को दबाने से कुंठा का भाव सृजन - प्रदीपजी, लेखक ,समाजसेवी - मानवी मीडिया

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Friday, April 16, 2021

स्वाभाविक जिज्ञासा को दबाने से कुंठा का भाव सृजन - प्रदीपजी, लेखक ,समाजसेवी


लखनऊ (मानवी मीडियाु) लखनऊछ बच्चे अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण कुछ न कुछ पूछते हीं रहते हैं- यह क्या है, ऐसा क्यों होता है, आदि-आदि। अगर इन प्रश्नों का सही उत्तर उन्हें मिल जाये तो उन्हें अधिक सोचने का मौका मिलता है। माता-पिता को ऐसे बच्चों को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके विपरीत माता-पिता झिड़की देकर अथवा डांट-डपट कर बच्चों के मनोभावों का दमन करते हैं और बाल चिकित्सकों के अनुसार बच्चे के मन को कुंठित करने का एक तरीका यह भी है कि उसकी स्वाभाविक जिज्ञासा को दबाने के लिए उसे झिड़किया दी जाएं और उसे डराया धमकाया जाए।

सही उत्तर देना जरूरी- यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि बच्चा स्वयं एक निर्देशक होता है। उसकी बुद्धि इतनी विकसित हो चुकी होती है कि वह अपने प्रश्नों को बखूबी समझता है। अतः बच्चों के प्रश्नों का उत्तर उनकी आयु समझ और ग्रहणशक्ति को ध्यान में रखकर दिया जाना चाहिए। पर कई बार माता-पिता बच्चों की जिम्मेदारियों से विमुख होकर उन्हें प्रश्नांे के उत्तर के लिए दादा-दादी के पास भेज देते हैं। वहां उन्हें काल्पनिक कहानियों के अलावा कुछ हासिल नहीं होता। कुछ लोग अपने बच्चों के प्रश्नों को टाल देते हैं। कह देते हैं कि तुम अभी बच्चे हो, इन बातों को क्या समझोगे जाओ जाकर खेलो। इस प्रकार के उत्तरों का बच्चों के ऊपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बच्चे को तो जानकारी चाहिए। वह गलत जगह से जानकारी लेता है और उलटी-सीधी धारणाएं बना लेता है। 

कुछ परिवारों में माता-पिता बच्चों को भला-बुरा कहने को एक हो जाते हैं और उसे झिड़कते रहते हैं इससे वे बच्चे की उपलब्धियों का महत्त्व घटा देते हैं। थोड़े से प्रतिकूल व्यवहार पर वे बेहद नाराज हो उठते हैं। कुछ परिवार ऐसे भी होते हैं जहाँ माता-पिता में से एक खूब डांटता-फटकारता है, तो दूसरा बच्चे का पक्ष लेने लगता है। बच्चे को समझ ही नही आता कि किसे सही माने। नतीजा यह होता है कि परिवार का माहौल बच्चे के विकास के अनुकूल नहीं रह जाता। ऐसे माहौल में पले बच्चे किसी न किसी प्रकार की कुंठा से ग्रस्त होते हैं।

अदृश्य दीवारें- यों नियंत्रण गलत नहीं है। गलत वह है जिसके बारे में सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डाक्टर वाटकिंस का कहना है कि ‘‘हम उस तरह के नियंत्रण की बात कर रहे हैं जिसमें माता-पिता बच्चे की हर हरकत पर नियंत्रण रखने का प्रयत्न करते हैं। बच्चे को सड़क या गली में जाने से रोकने के लिए घर के बाहर बाड़ जैसी कोई वास्तविक सीमा खड़ी करनेे के स्थान पर माता-पिता ऐसी दीवारें खड़ी कर देते हैं जो दिखाई नहीं देती। बच्चे से कहा जाता है कि यदि उसने अपने आप कोई खोज करने की कोशिश की या माता-पिता की बात न मानी तो उसका परिणाम भयंकर होगा।’’

बाल चिकित्साशास्त्री डाक्टर लेफर का कहना है कि ‘‘सभी माता-पिता किसी न किसी मामले में आचरण के मापदंड निर्धारित करके और माता-पिता के मूल्य दिल में बैठाने का प्रयत्न करके अपने बच्चों पर प्रभुत्व जमाने की कोशिश करते हैं। सीख और उदाहरण द्वारा प्रभुत्व जमाने में अन्तर है। डांटने और फटकारने वाले माता-पिता बच्चों को अपनी इच्छानुसार चलाने के लिए उन्हें आतंकित करने का रास्ता अपनाते हैं, जिसे किसी भी मायने में सही नहीं कहा जा सकता।

मनोवैज्ञानिक पाल का कहना है कि ‘‘माता-पिता से डांटे-फटकारे जाने वाले बहुत से बच्चे समझते हैं कि वे इसी लायक हैं। बड़ी उम्र के अन्य लोगों की चुप्पी और निष्क्रियता से बच्चों को विश्वास हो जाता है कि वे वाकई निकम्मे बुरे या डरपोक है। मिनसोटा यूनिवर्सिटी के सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक बायरन एंगलैड के अनुसार, ‘‘जिन बच्चों की भावनाओं को ठेस पहंुचती है, बड़े होने पर उनका मानसिक विकास दूसरे बच्चों की अपेक्षा कम हो पाता है। ऐसा इसलिए होता है कि भावनाओं को ठेस पहंुचाते रहने से बच्चे के स्वाभिमान में निरन्तर ह्रास होता चला जाता है। 

क्यों पहुंचाते हैं माँ-बाप ठेस? बच्चे के मन को ठेस पहँुचाने वाले लोग बच्चे के अनुचित व्यवहार के कारण नहीं, अपनी मनोवैज्ञानिक समस्याओं के कारण ऐसा करते हैं। डांटने-फटकारने और गाली-गलौच करने वाले माता-पिता चाहे कम आमदनी वाले परिवार के हों या समृद्ध परिवार के आमतौर पर वे ऐसे लोग होते हैं जिन्हें स्वयं अपने माता-पिता से पर्याप्त प्यार नहीं मिला होता, न ही जिनका ठीक ढंग से पालन-पोषण हुआ होता है। प्रायः सभी यह समझने में असमर्थ होते है कि बच्चा जो व्यवहार करता है, उसका सम्बन्ध शायद किसी ऐसी बात से न हो जो उसके माता-पिता ने की है या जिन्हें करने में वे असमर्थ रहे हैं। उदाहरण के लिए गाली-गलौज करने वाले माता-पिता अक्सर यह समझते हैं कि अगर कोई बच्चा रो रहा है तो उसका कारण भूख या डर नहीं बल्कि यह है कि वह ‘बिगड़ा हुआ’ है या वह चाहता है कि उसे गोद में उठा लिया जाये।

वास्तविकता यह है कि उपेक्षा से बच्चों का दिल टूट जाता है। बच्चे को अपनी जिज्ञासा विकास या 

उपलब्धि का कोई भी सामान्य भावनात्मक पुरस्कार नहीं मिलता। जब कोई बच्चा पहली बार चलना सीखता है तो सामान्य माता-पिता की क्या प्रतिक्रिया होती है? वे प्रसन्न होते हैं और उसे और प्रोत्साहित करते हैं लेकिन जिस घर में प्यार और भावना नाम की कोई चीज नहीं होती वहां बच्चे की प्रगति पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता, अगर माँ-बाप में से किसी का ध्यान इस ओर जाता भी है तो उसमें एक तरह की झुंझलाहट सी होती है कि अब बच्चे की ज्यादा देखरेख करना जरूरी हो गया है। बहरहाल समाज-परिवार के लिए यह एक बीमारी है जिसमें स्वस्थ मनःस्थिति के बच्चे की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि आप इस स्थिति को बदलना चाहते हैं तो सबसे पहले खुद को बदलिये। बच्चों को समझिए, जितना आप अपने संसार को अपनी भावनाओं को समझते हैं।

मेरा दृष्टिकोण तो यह है कि अगर आप इन्द्रधनुष चाहते हैं तो आपको बरसात सहन करनी ही होगी। सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं। -- सांभर


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